Monday, January 16, 2012

चातुर्वर्णं मया सृष्टं

कुछ आंग्ल बुद्धि पाठकों को शीर्षक समझने में कतिपय कठिनाई हो सकती है. तो इस बात को सुद्ध हिंदी में कहेंगे कि "चार वर्ण मैंने बनाये हैं"... जी हाँ! दरअसल इसकी शुरुआत तब हुई जब मैंने जाना कि अव्यवस्थित व्यक्तित्व मात्र उलझने और परेशानियाँ लाता है. अव्यवस्थित व्यक्तित्व एक ऐसी सेना के समान है जो अनुशासन नहीं जानती. जरा पूछिए किसी सैन्य अधिकारी से कि अगर उसकी सेना में से अनुशासन निकाल दिया जाए फिर सेना उसके किसी काम की रहती है या नहीं? कोई बात नहीं.. किसी कार्पोरेट मैनेजर से पूछिए कि उसकी टीम अव्यवस्थित हो तो क्या उत्पादकता की उम्मीद की जा सकती है? चलिए कोई बात नहीं... आप स्वयं से पूछिए कि दिनचर्या का अनुशासन छोड़ दें तो क्या आप अपने जीवन सञ्चालन की उम्मीद कर सकते हैं? प्रत्येक व्यवस्था के कुछ नियम होते हैं. और उन नियमों का पालन ही अनुशासन है. मैं समझ चुका था कि अनुशासन के बिना जीवन सञ्चालन नहीं हो सकता. अतिआवश्यक अनुशासन का पालन कराने के लिए ईश्वर/प्रकृति ने हमें बाँध रखा है. अतः पशुवत जीवन बाध्य रूप से जिया जा सकता है. लेकिन मनुष्य मात्र पशु नहीं है. कुछ उससे बढ कर है. मनुष्य जीवन के उद्देश्य भी पशुओं की तुलना में अतिरिक्त हैं. और इन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए पशुओं से अधिक अनुशासन की आवश्यकता है. व्यक्तित्व का व्यवस्थापन अतिआवश्यक हो चुका था.

वर्ण का एक अर्थ रंग होता है. मैंने अपने व्यक्तित्व के रंगों को देखना प्रारंभ किया. मुझे लगा कि ऐक्षिक कर्म करने के लिए सर्वप्रथम तो आलस्य का त्याग करना ही होगा. ऐक्षिक कर्म, कर्म से बच कर नहीं किया जा सकता. परिश्रम को सीखना ही होगा. इसके बाद ही आगे की यात्रा हो सकती है. लेकिन यह इतना आसान न था. परिश्रम का संकल्प तो रोज किया जा सकता है, लेकिन परिश्रमी वही है जिसे परिश्रम थकाते नहीं हैं. जिनके लिए परिश्रम दिनचर्या बन जाता है. एक स्वभाव बन जाता है.. जब तक ऐसा नहीं होता प्रत्येक कर्म में आलस्य कुछ कमी छोड़ देता है. और अपूर्ण कर्म से वांछित फल की उम्मीद नहीं की जा सकती. अतः परिश्रम का अभ्यास आवश्यक है. मुझे लगा कि मुझे अधिक से अधिक कर्म करते ही रहना चाहिए.. उसमें यदि व्यक्तिगत लाभ सीधे सीधे दिखाई न भी दे रहा हो, तो भी परिश्रम का अभ्यास एक बहुत बड़ा लाभ होगा. स्वयं के लिए कर्म करते समय फल की प्रेरणा कर्म में लगाये रहती है. प्रेरणा के हटते ही आलस्य के पुनः कब्ज़ा जमाने का अवसर भी रहता है. किन्तु जब परिश्रम औरों के लिए या निष्काम रूप से किया जाये तो विशुद्ध परिश्रम का ही अभ्यास होता है. परिश्रम एक आदत बनने लगता है. पहलवानी खेतों में मेहनत कर के नहीं होती है. उसके लिए तो जिम में फालतू पसीना बहाना पड़ता है. मेरे जीवन के लक्ष्य अगर निर्धारित होते तो मैं अवश्य ही परिश्रम की नापतौल करता. मैं तो लालची इन्सान हूँ. मेरे लालच को जीवन में सतत उन्नति चाहिये थी. अतः मैंने जाना कि परिश्रम का एक आदत बन जाना आवश्यक है.

बुकर टी वासिंगटन ( Booker T Washington) अपनी आत्मकथा में लिखते हैं कि वे जब वर्जीनिया के किसी स्कूल में शिक्षा प्राप्त करने के लिये गये तो प्रधानाचार्या ने प्रवेश परीक्षा के नाम पर उन्हें एक कक्ष की सफाई का काम सौंपा. दरअसल सफाई करना एक इतना बड़ा काम है कि यह कभी ख़त्म नहीं होता. मेरे सामने मेरे  घर के जालों की सफाई का काम नज़र आ रहा था. उसके बाद गाँव भर के कूड़े की सफाई, खेतों में खरपतवार की सफाई. एक सफाई से फुरसत मिली नहीं तब तक दूसरी गन्दी चीज़ पर नज़र टिक जाती. ये सफाई का काम तो अभी शुरू किया था. वरना गन्दगी फ़ैलाने में गाँव का सबसे बड़ा उस्ताद था. नज़र भी इतनी अभ्यस्त थी कि गन्दगी ही ढूँढती थी. सो तुरंत गन्दगी नज़र आ जाती और मुझे तो जैसे काम नज़र आ जाता. परिश्रम करने के लिये काम की कोई कमी नहीं थी. पूरा घर, पूरा गाँव और खेत खलिहान अपने सुन्दरतम रूप में दिखने लगे. सफाई अपना असर दिखा रही थी... एक बार तो मुझे लगा जैसे अब काम ही समाप्त हो गया. गन्दगी लगभग समाप्त हो चुकी थी. लेकिन फुरसत से बैठते ही मुझे समझ में आया कि अभी अपने शरीर की सफाई तो बाकी है. अपने कपड़े, अपने बाल, अपने नाखून.. अपनी भाषा, अपना चरित्र.. और भी न जाने क्या क्या. यह भी एक अच्छा काम था. कई तो देखते ही कहने लगते कि वाह, तेरी तो पर्सनालिटी ही चेंज हो गयी. मैं भी अपने व्यक्तित्व का नया रंग देख कर खुश था. इस काम में एक बुराई है, चाहे गाँव भर की करें या अपनी, लेकिन सेवा करनी पड़ती है. जब मैं अपने दादा जी से मिलने गया तो उन्होंने मुझे गले से लगा लिया. वे बोले जब तक यह मेहतर तेरे अन्दर जिन्दा रहेगा लोग तुझे गले लगाते ही रहेंगे. जब मैं चलने लगा तो बोले, कभी इस मेहतर को अपने दिमाग में भी भेजा कर !

स्मार्ट लोगों के लिए सफाई का अर्थ चेहरा चमकाना और प्रेस किये हुए कपड़े पहनना होता होगा. मैं उतना स्मार्ट नहीं हूँ. मुझे तो लगता है कि इस चमक को बरक़रार रखना भी जरूरी है. दस मिनट में ब्रुश किया हुआ मुंह राजश्री खाते ही एक मिनट में वापस गटर बन जाता है. कोई बात नहीं आप रजनीगंधा खाईये.. आज कल तो हर जगह सुगंध करने के साधन आ गये है. लेकिन व्यक्तित्व की बदबू गुणों के संकलन और अवगुणों के निराकरण के बिना नहीं जा सकती.

मैं जानता था कि अभी कमियां और भी हैं. केवल कर्म करने की आदत से उद्देश्यों की पूर्ति होने वाली नहीं है. मुझे यह हिसाब सीखना ही होगा कि कौन सा कर्म आगे बढ़ाने वाला है और कौन सा कर्म पीछे ढकेलने वाला. किस कर्म में लाभ है और किस कर्म में हानि. कुछ कर्मों को ढूंढ कर करना होगा तो कुछ को साफ़ साफ़ ना कहना होगा. मुझे कल्पनाशीलता, गणित, विश्लेषण का उपयोग करना आना ही चाहिये. तभी मोल-भाव हो सकता है. हर बात में से लाभ पैदा करने का विज्ञान अपने लक्ष्य को समझने और कुछ कदम आगे की कल्पना करने का ही दूसरा नाम है. कई बार वर्तमान में हानिकरक दिखने वाले कर्म सुदूर भविष्य में लाभ देने वाले होते है. हिसाब लगाने की कला ने मुझे सिखाया कि प्रत्येक काम को करने का एक ऐसा तरीका होता है जिसमें कि लाभ होता है. शेष सारे तरीके उसकी तुलना में  हानिकारक होते हैं. उनकी भी सफाई जरूरी है. कर्मशील शूद्र के साथ साथ एक हिसाब लगाने वाला बनिया जब तक पैदा नहीं होता मैं आगे नहीं बढ़ सकता. लाभ कमाने का काम व्यापार करने का काम है. इस काम में बुराई यह है कि विनम्रता सीखनी पड़ती है. लेकिन इस में मजा भी है. मजा इसलिए है क्योंकि लेन-देन है. इसीलिये दुनिया चलती है. मुझे तो अच्छा ये लगा कि अब काम की कोई  टेंसन नहीं थी. जितना चाहो उतना परिश्रम करो. हाँ कुछ परेशानियाँ भी हैं. लेकिन वे मजा लेने वालों के लिये है.

सारी परेशानियों की जड़ यह मजा ही है. किसी न किसी चीज में आता ही रहता है. सही हिसाब लगाने नहीं देता है. हर बहीखाते के अन्दर अपना एक अलग खाना रखता है. अन्य सारे खानों में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष इन्फ्लुएंस  रखता है. इसके अपने खाने में बढ़ने और अन्य खानों में समा जाने की कोई सीमा नहीं है. सबसे बड़ी दिक्कत तो यह है कि यह भयभीत रखता है. भयवश भविष्य में लाभ देने वाले काम हो नहीं पाते हैं. या तो हिसाब गड़बड़ कर देता है, या फिर सही निर्णय नहीं लेने देता है. ये हमारी कार्यप्रणाली का प्रमुख हिस्सा भी है. कारण भी है और फल भी... खासी टैक्टिकल सिचुएशन है.. आप जानते है कि जहाँ जहाँ टैक्टिकल सिचुएशन है वहां वहां वह बनी ही रहती है. या फिर लड़ना पड़ता है. कम से कम मुझे तो लड़ने के अतिरिक्त और कोई रास्ता नज़र नहीं आया. दिमाग लगाना पड़ेगा, ताकत लगानी पड़ेगी और जोर लगाना पड़ेगा. कम से कम इतना तो करना ही पड़ेगा. लड़ाई है... लड़ाई में इससे कम में तो काम ही नहीं चल सकता. इसके अधिक किया भी नहीं जा सकता. जो लड़ने की जगह बचने में लगा है वह पिटने में लगा है. जीतने हारने का स्वाद तो लड़ाई के बाद पता चलता है. इसलिए मुझे उसकी उतनी परवाह नहीं है, मैं तो बस पिटना नहीं चाहता. मैं इस मजे नाम के दुश्मन से लड़ना ही चाहता था. लेकिन भय था कि मजा मर गया तो फिर मजा कैसे आएगा? मजा जिन्दा तो भय जिन्दा.. भय जिन्दा तो मजा जिन्दा... गहरा विज्ञान है... मेरी समझ से परे था. मैं तो ये समझा कि बस स्वयं को इस लड़ाई के लिये समर्पित कर दो. जो सामने आ जाये; मजा या भय, उसको मारो. एक निपुण और निर्भय क्षत्रिय के बिना सब किया कराया बेकार था. हाँ लड़ाई में फायदा यह नज़र आ रहा था कि इसमें पिटने से बचने का प्रत्यक्ष लाभ भी था और जीतने पर हिसाब ठीक होने का लाभ था. परिश्रम और लाभ-कला का प्रदर्शन करने के लिये युद्ध से अच्छा रिअलिटी शो नहीं हो सकता. और लाभ है, तो लेन देन है. और आप जानते हैं कि लेन देन है तो मजा है.

कुछ लोग लड़ाई मजा लेने के लिए लड़ते होंगे. मैं तो मजे से जीतने के लिए लड़ रहा था. जो मजा लेने के लिये लड़ रहे हैं, वे शायद न पसंद करते हों कि लड़ाई किसी अंजाम तक पहुंचे. लेकिन जो सीरिअस हैं वे जीतना चाहते है. हारने के लिए शायद ही कोई लड़ता हो. आप देखिये, लड़ाई में यदि हार दिखाई दे रही हो तो जोर अपने आप लगने लगता है. जोर लगाना लड़ाई का प्रमुख अंग है. दुश्मन भी जोर लगाता है. अपनी रक्षा कौन नहीं करना चाहता? मैं सोच रहा था कि जीतने वाला जोर क्यों लगाता है? ...मजा भी अजीब दुश्मन है. जितना मारना चाहो उतना ही जोरदार होता जाता है. या तो आदत बन जाता है या फिर कुंठा. उलझनों और परेशानियों से छुटकारा पाना इतना बड़ा उद्देश्य नहीं था कि मैं इतने मायावी दुश्मन से लड़ने का जोर पैदा कर पाता. मैं अपने क्षत्रिय को पराजित होते भी नहीं देखना चाहता था. मुझे लगा कि कुछ दिमाग लगाना ही पड़ेगा. आखिर ताकत लगाने और जोर लगाने के अतिरिक्त दिमाग लगाना भी तो लड़ाई का एक अंग है. मैं एक अति साधारण आदमी हूँ. मेरी ताकत सीमित है. मैं तो बस दिमाग की मात्रा बढ़ा सकता हूँ या फिर अधिक जोर लगाने का कारण ढूंढ सकता हूँ. विशेष परिस्थिति में दोनों काम एक साथ भी कर सकता हूँ.

बुकर टी वासिंगटन के लिये अपना काम धंधा छोड़ कर वर्जीनिया पहुंचना एक बहुत बड़ा दांव था. भयवश उन्होंने कक्ष की सफाई इस तरह की कि किसी भी कोने में उन्होंने असफलता की गुंजाइश नहीं छोड़ी. काम भयवश किया गया था. प्रधानाचार्या को उसमें परफेक्शन नजर आया. वे सफल हो गये. मेरा क्षत्रिय भय से लड़ रहा था, बुकर टी वासिंगटन के लिये भय काम आ गया. उनका भय लड़ाई हार जाने का भय था अतः जोर स्वाभाविक था. मेरा भय अलग तरह का था. मुझे लग रहा था कि मजे से जीतने में मजे की हत्या हो गयी तो मजा कैसे आयेगा? मेरा भय जीत में भय देख रहा था. भय मजे का ही साथी था, बल्कि उसका उत्पादन. बुकर टी वासिंगटन वाला भय मेरे पास नहीं था. लेकिन मैं यह जानता था कि मुझे भी ऐसे ही किसी सहयोगी की जरूरत है. कोई भी साथी हो, बस एक खासियत हो कि उसका इस मजे नाम के व्यक्ति से नाता नहीं होना चाहिये. मैंने देखा कि यह मजा हर चीज़ पर कब्ज़ा कर लेता है. यहाँ तक कि उस मंदिर पर भी जिसे हम मन कहते हैं. लेकिन इसकी सीमा मन के आगे नहीं है. बुद्धि इस मजे नाम के व्यक्ति से कोई सम्बन्ध नहीं रखती है. वह तो बस सही सलाह देती है. हाँ सुनना न सुनना, मानना न मानना हमारा काम है. मुझे लगा कि बुद्धि का प्रयोग करना ही चाहिये. जी हाँ! बुद्धि का प्रयोग तो होना ही चाहिये.

मूर्ख हैं वे व्यक्ति जो बुद्धि का प्रयोग करना चाहते हैं. बुद्धि का भी कहीं प्रयोग किया जाता है. वह तो स्वप्रेरित काम करती है. और करती ही रहती है. आप न चाहें तो भी करेगी. आप को ऐसा नहीं लगता तो कोई बात नहीं. कल जब सो के उठें तो ध्यान दें बुद्धि आपको आप से पहले ही जागी हुई मिलेगी. मैं पुराना आलसी हूँ. सुबह जब मेरी बुद्धि पहली घंटी बजाती है मैं तभी जाग पाता हूँ. हाँ रात में जरूर बुद्धि कहने लगती है कि अरली टू बेड. लेकिन मैंने इसे अपने आप से पहले सोता हुआ कभी नहीं पाया. बुद्धि जैसा परिश्रमी कोई नहीं है. कुछ योगी होते होंगे जो बुद्धि पर भी नियंत्रण कर पाते होंगे. मैंने तो यह समझा कि इधर उधर भटकना बंद करो और बुद्धि का प्रवचन सुनो. बुद्धि की सुनना और उस पर आचरण करना ही बुद्धि का प्रयोग है. आप प्रयोग कहिये.. मैं तो इसको बुद्धि की शरण में जाना कहता हूँ... ठीक है, आपको अपने बुद्धिमान होने का अहं है. तो आप बुद्धि के सामने मत झुकिए. लेकिन आप के पास भी बुद्धि का कोई विकल्प नहीं है. लड़ाई कठिन थी... बुद्धि अपना ही अंग है. उसकी शरण, उसका दिशा निर्देश, उसका ज्ञान ..सब मेरे काम आ सकता था. मैं अपने विषय में बताऊँ तो मैं एक स्वार्थी किस्म का इन्सान हूँ... बेशर्मी की हद तक स्वार्थी... मुझे यह स्वस्फूर्त, सत्यवादी बुद्धि के चरण पकड़ने में कोई शर्म नहीं है.. मेरा तो बस काम बनना चाहिये. मेरी बुद्धिमानी ने मुझे समझाया कि बुद्धि के अनुसार आचरण में ही बुद्धिमानी है. इतना बुद्धिमान ब्रह्मण अपने अन्दर पैदा होते देख कर मुझे लगने लगा था कि अब शायद मैं यह लड़ाई जीत सकता हूँ.

मैंने ध्यान से सुना. बुद्धि कह रही थी.

"मजा तो उस मदरसे जैसा है जो अज्ञानियों को कर्तव्य और अकर्तव्य की शिक्षा देने के लिये बनाया गया था. लेकिन कुछ मजे के गुलाम होते हैं. ये मदरसा जब उनके हाथ आ जाता है तो उसमें से भय का आतंकवादी पैदा होने लगता है. तू तो अपने व्यक्तित्व के व्यवस्थापन के लिये निकला था, तू इन लड़ाइयों के चक्कर में क्यों पड़ा है? अपने क्षत्रिय से कह कि ये फालतू की लड़ाईयां बंद करे. अधिकतर युद्ध तो निपुणता और निर्भयता का सर्टीफिकेट दिखा कर ही जीत लिये जाते हैं. क्षत्रिय का काम लड़ना नहीं है. क्षत्रिय का काम तो नियंत्रण करना है. क्षत्रिय से कह कि लड़ने की आदत पर नियंत्रण करे. ये मजा मर गया तो भोगियों को काम का सऊर कौन सिखायेगा? जीत हत्या में नहीं होती है, जीत तो नियंत्रण में होती है. इस मदरसे पर नियंत्रण कर."

"अपने बनिए पर नियंत्रण कर. उसको समझा कि जब तेरे बहीखाते के हर खाने में मजा समाया हुआ है तो तू मजे के लिये अलग से खाना क्यों बनाता है? जितना मजा तू अपने व्यक्तिगत खाने में जमा करता है, उतना तेरे ही व्यापार का क्षय होता है. हर खाने में मजे की सीमा निर्धारित कर. मजे को उस सीमा में नियंत्रित कर. और खाने बना. बढ़े हुये मजे का वितरण कर. देख तेरे उसी बहीखाते के अन्दर अभी कितना मजा और घुस सकता है. तेरा टर्न-ओवर भी बढ़ेगा, मजा भी बढ़ेगा और लाभ तो बढ़ेगा ही बढ़ेगा. शुभ-लाभ की लो-प्रोफिट स्ट्रेटेजी पर काम कर."

"ये तेरा शूद्र सब साफ़ किये दे रहा है. इस पर नियंत्रण कर. इसे समझा कि सफाई सिर्फ गन्दगी की करनी है. तेरी  सफाई की आदत अच्छाइयों को भी कूड़े में फेक रही है. और कूड़े को कहाँ फेकेगा? जहाँ फेकेगा वहां से कूड़ा कहाँ जाएगा? कूड़ा तो रहेगा. थोड़ी दूर फेक आएगा तो कल और दूर फेकने जायेगा. एक दिन सफाई कम करेगा, कूड़ा फेकने की जगह ढूँढता फिरेगा. केवल सफाई से सुन्दरता नहीं बढ़ती है. सफाई से तो सुन्दरता दिखने लगती है. ये सुन्दरता का दीवाना है. इससे कह कि सुन्दरता बढ़ाने के लिये कुछ सृजन भी किया करे. कुछ बनाना भी सीख. जूते बना, कपड़े बना, बर्तन बना, घर बना, मशीन बना...तमाम कूड़ा तो इसी काम आ जायेगा. मजदूरी बंद कर, मिस्त्रीगीरी सीख. आराम से परिश्रम करेगा. लोग तुझे साहब कहेंगे."

बुद्धि कह रही थी की "हर जगह नियंत्रण चाहिये. अनियंत्रित कुछ भी अच्छा नहीं है. नियंत्रण चलाता भी है और रोकता भी है. यह मोड़ता भी है. एक खास विशेषता है. इसके अन्दर जो कुछ भी आ जाता है, वह साथ रहता है. यह प्रगति की ओर ले भी जाता है और प्रगति को बरकरार भी रखता है."

"परिश्रमी को एक आराम का वरदान होता है. उसे केवल एक तरह का नियंत्रण चाहिये, निर्धारण की दिशा में. शेष काम उसकी परिश्रम की आदत कर देती है. आलसी के लिए यह परेशानी है कि उसे निर्धारण का भी नियंत्रण करना है और कर्म का भी. लक्ष्य कितना भी एकाकी हो उसके कर्म तो अनेक होते हैं. आलसी इसीलिये उलझन का शिकार रहता है."

"परेशानी आने का कारण मजा नहीं है. परेशानी का कारण तो अनियंत्रित आचरण है. जो मजे की दोस्ती में हो जाता है. जब भी अनुशासन के बाहर काम किया जायेगा तो वह परेशानियों का दंड ले कर जरूर आयेगा. बाहर के दंड से बचा जा सकता है लेकिन तेरा वह कर्म व्यक्तित्व में कुछ ऐसे हार्मोन घोल देगा कि वो अनियंत्रण तेरे व्यक्तित्व का हिस्सा बनने लगेगा. अनियंत्रित आचरण ही पाप है और नियंत्रित आचरण ही पुण्य. यही नर्क और स्वर्ग की यात्रा भी कराता है. यह नियंत्रण ही तो धर्म है."

बुद्धि कह रही थी कि "तेरा शूद्र बहुत समझदार है कि उसने सफाई का काम चुना. काम कोई छोटा बड़ा नहीं होता. छोटा बड़ा तो काम का उद्देश्य होता है. कितने अपनी दीवार की लड़ाई में मारे जाते हैं. जो देश की सीमा पर गोली खा रहा है वही शहीद है."

बुद्धि कह रही थी कि "तुम्हारे शूद्र को अभी और परिश्रम का अभ्यास करना होगा. काम बहुत है. केवल एक गाँव की सफाई कर ली और नहाने बैठ गए..! अभी हवा चलेगी, पड़ोस के गाँव का सब कूड़ा तेरे गाँव में घुस जायेगा.. अभी उधर से आंधी चली आ रही है..विदेशी कूड़ा ले कर. और बड़ा मेहतर बनना पड़ेगा..कई हाथ वाला..तभी काम बनेगा. ..अभी इंतजार कर तूफानों के आने का. कूड़े की कोई कमी नहीं है दुनियां में.. अभी तो बहुत आलस्य बाकी है इस शूद्र के अन्दर, बैठ कर इंतजार कर सकता है... लेकिन जब ये शूद्र भी उतना ही स्वस्फूर्त हो जायेगा जितनी कि बुद्धि है, तो इंतजार नहीं होगा. वो तो झाड़ू उठायेगा और कहेगा कि मन नहीं लग रहा है.. मैं तो पड़ोस के गाँव जा रहा हूँ.. सफाई कर दूँ. देश विदेश सब तो गन्दा पड़ा है. जब तक ये सब साफ़ नहीं हो जाता तब तक मेरे घर की सफाई बरकरार नहीं रह सकती."

बुद्धि कह रही थी कि "तेरे बनिए का हिसाब अभी कच्चा है. ये काम का हिसाब तो लगाना जानता है, लेकिन हर काम के साथ जो मजा आ रहा है उसका हिसाब नहीं लगाता है. इसे समझाना होगा कि जिस खाने में मजा अधिक जमा हो जायेगा वही खाना तेरा बहीखाता छोड़ कर अपना अलग बहीखाता बनाने चल देगा.... नहीं तो वो खाना स्विस बैंक हो जायेगा.. फिर पता नहीं कितने अनशन करने पड़ेंगे !"

बुद्धि कह रही थी कि "तेरा क्षत्रिय तो अभी एकदम अनाड़ी है. ये मजे से लड़ते लड़ते उससे इतना लिपट जाता है कि लड़ने में ही मजा लेने लगता है. यह इतना भयभीत हो जाता है कि मजे को दूर करने से डरने लगता है. जब तक यह मजे को अपना यार बनाता रहेगा, यह भयभीत ही रहेगा."

बुद्धि कह रही थी कि "यह सफाई का उद्देश्य ही इतना बड़ा उद्देश्य है कि जितना चाहो उतना जोर लगा लो.." बुद्धि कह रही थी कि "मैं भी सतत इसी काम में लगी रहती हूँ....... तुमने दिमाग में कूड़ा भरा हुआ है. और मुझे कूड़ा पसंद नहीं है. ये उलझन पैदा करता है." बुद्धि निवेदन कर रही थी कि "कृपया मुझे गन्दा न करें. मैं पवित्रता में ही काम कर पाती हूँ."

अब मुझे कुछ कुछ समझ में आ रहा था की उलझने क्यों हैं? परेशानियाँ क्यों हैं? जिस मजे को मैं दुश्मन समझ रहा था वो तो ग्रोथ का इंजन निकला. मैं समझ रहा था कि मेरे क्षत्रिय को न तो इस मजे से लड़ना है और न ही इसे अपना दामाद बनाना है. बस बाँध के रखना है.... नियंत्रण! हर चीज को धर्म में रखिये. मजा भी ईश्वरीय चीज है.

चूंकि मैं छोटा आदमी हूँ इसलिए अत्यधिक स्वार्थी एवं लालची होने के बावजूद मेरे स्वार्थ और लालच अधिक बड़े नहीं हैं. मेरे व्यक्तित्व के लिये मुझे लगता है कि ये चार रंग काफी हैं. सफाई करना मेरा उद्देश्य नहीं था. मेरा उद्देश्य तो अपने व्यक्तित्व को ठीक करना था. लेकिन पड़ोस के गाँव की हवा और विदेश की आंधी, मेरी आँखों में भी धूल झोंकती है. मेरे भी कपड़े ख़राब करती है. मुझे लगता है कि ठीक व्यक्तित्व को लेकर जल्दी कहीं चला जाऊं... तभी यह ठीक रह पायेगा... या फिर झाड़ू उठाऊं.. क्योंकि जब तक पूरी दुनियां को अपना ही आँगन समझ कर सफाई नहीं की जायेगी तब तक कहीं भी सफाई नहीं रह सकती. यही मेरा वसुधैव कुटुम्बकम है. अपना व्यक्तित्व ठीक कर के उलझनों और परेशानियों से छुटकारा एक हद तक ही प्राप्त हो सकता है. पूर्ण विजय के लिये स्वार्थ की मात्रा बढ़ानी ही पड़ेगी. तभी इतना जोर लगेगा कि इस दुनियां का दुनियत्व ठीक हो जाये. कुछ उत्साही लोग इसे मेरा परमार्थ कह सकते हैं..लेकिन मेरे लिये तो यह बढ़े हुए स्वार्थ का ही एक रूप है.

Courtesy: radiosai.org

तद्विद्धि     प्रणिपातेन    परिप्रश्नेन    सेवया I
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्वदर्शिनः II
(सेवा, विनम्रता और समर्पण के साथ जब ध्यान से प्रश्न पूछोगे तो तत्वदर्शी तुन्हें ज्ञान का उपदेश करेंगे.)
श्रीमदभगवद्गीता